यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ री कविता- साँच मायलो


जद-जद म्हांरो उणियारो,

उणमणै सूं किच्योईज जावै,

डाबरनैणा मांय पीडावां झळमळावै,

तद-तद म्हारा भायला

तीर ज्यूं तीखा बोळ चुभावै -

‘के भयला तन्नै,

किणी टींगरी सूं परेम हुयग्यो दीसै’

म्हैं बाने कियां बतावूं

कै म्हारी भैण मोट्यार हुयगी है,

अर म्हैं ठालो बैठ्यो हूं।

जद-जद म्है मंदर जाय’र

ईसरै सामै माथो टेकूं

तद म्हारा भायला जाणै

कै म्हैं जीवण रा सातूं सुख मांगू,

पण सांच तो ओ है कै

म्हैं मा छोटी-मोटी नौकरी मांगू,

वजै म्हारी विधवा मायड मांदी है।

जद म्हैं म्हारा मायलां दुखां सूं

आकळ-बाकळ होयनै,

झींटा खींचू,

भायला जाणे के म्हैं

गैलो हुयग्यो हूं,

पण असल में

म्हैं म्हारै मांयले

विदरोव ने,

इण मिलख खावणी व्यवस्था रो

विरोध करूं,

जिकै ने म्है चिरलाय-चिरलाय

नीं कैय सकूं।

म्हैं लाचार हूं। भायला लाचार हूं।


Comments

2 Responses to “यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ री कविता- साँच मायलो”

September 2, 2010 at 11:45 AM

घणो धनभाग म्हारो जो ऐ कवितावां भणवानै मिली ।

September 3, 2010 at 4:04 AM

आखर अलख रो घणो घणो स्वागत है सा...
भादाणी जी अर यादवेन्द्र जी सूं सरुआत हुई है..जोरको काम बणसी ..