नीरज दइया री दस कवितावां


कवि नीरज दइया रा दोय कविता संग्रै "साख" अर "देसूंटो" प्रकासित नै चर्चित । राजस्थानी मांय संपादक रै रूप "नेगचार" सूं ओळख मिली अर पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम अर हिंदी कथाकर निर्मल वर्मा री पोथ्या रा आप अनुवाद ई करिया । अकादमी अर दूजा मान सम्मान ई मिल्योड़ा ।आप राजस्थानी मांय पैली लघुकथावां लिखी अर संग्रै "भोर सूं आथण तांई" प्रकासित ई हुयो, पण आं दिनां कविता पछै आलोचना माथै खास ध्यान देय रैया है । पोथी "आलोचना रै आंगणै" छपण मतै ।
आं दिनां रैवास सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)  ।
ई-मेल : neerajdaiya@gmail.com


(1)

ओळख्यां अंधारो

डरै टाबर
अंधारै सूं
डरतो-डरतो सीखै
नीं डरणो ।

एक दिन
आवै ऐड़ो
धोळै दोफारां
टाबर ओळख लेवै
उजास में अंधारो ।

ओळख्यां अंधारो
टाबर-टाबर नीं रैवै
दबण लागै
भार सूं
करण लागै जुद्ध
अंधारै री मार सूं ।
***
(2)

हाकै में

म्हैं अठै
बरसां बाद बावड़ियो हूं
क्यूं चावूं देखणो
बो घर-गळी-आंगणो
कांई लेणो-देणो अबै
उण बीत्योड़ै बगत रै ऐनाणां सूं ।

बदळै बगत
स्सौ कीं हाफी-हाफी
तद नीं करै
मनां री गिनार ।

चोखो है भायला
थूं पोखै है कविता
इण हाकै में
परखै-पिछाणै पीड़
थारै जैड़ा रै ताण ई
साबत है
गैला-गूंगां रा सींग-पूछ ।

लोग कविता नै
गेला-गूंगा रा सींग-पूंछ समझै ।
***
(3)

थारै गयां पछै

जद-जद थारी आंख सूं
झरिया है आंसू
बां तांई
पूग्या ईज है हरमेस
म्हारी ओळूं रा हाथ ।

थनै उणां रो परस
हुवै का नीं हुवै
पण म्हैं सदीव उखणियो है
थारै आंसुवां रो भार !

थारी उडीक मांय
थारै पछै
कीं बाकी नीं है
थारै अणदीठ आंसुवां नै टाळ !
***
(4)

साख भरै सबद

दरद रै सागर मांय
म्हैं डूबूं-तिरूं
कोई नीं झालै-
महारो हाथ ।

म्हैं नीं चावूं
म्हारी पीड़ रा
बखाण
पूगै थां तांई
कै उण तांई ।

पण नीं है कारी
म्हारै दरद री
साख भरै-
म्हारो सबद-सबद ।
***
(5)

सबदां री नदी मांय

म्हैं अंवेरर राख्यो है
थारै दियोड़ो-
गुलाब ।

जद थूं दियो
म्हैं नीं जाणतो हो अरथ
उण नै लेवण रो ।

नीं जाणतो हो म्हैं
कै किणी रै ई पांती आ सकै है
अणजाण-अचाणचकै कदैई
कोई गुलाब ।

अबै थूं
म्हारै अंतस रै आंगणै
गुलाब रै उण फूल साथै जीवै है
अर म्हारै सबदां री नदी मांय
बैवै है उडीक साथै ।
***
(6)

घर

थूं अर म्हैं पाळ्यो
हजार-हजार रंगां रो
एक सुपनो ।

थारी अर म्हारी दीठ रो
थारै अर म्हारै सुपनां रो
एक घर हो
जिको अबै धरती माथै
कदैई नीं चिणीजैला ।

मा कैवै-
मूरखता है
घर थकां रिधरोही मांय हांडणो ।
बाळ दे नुगरा सुपनां नै
जिका दिरावै थाकैलो
अर करावै
बिरथा जातरा ।
***
(7)

कविता लिखैला जीसा

म्हैं कोटगेट सूं
अलेखूं वळा निकळ्यो
जीसा ई निकळ्या हा
पण म्हां नीं लिखी कोई कविता-
कोटगेट री ।
कविता में फगत
कोटगेट कोटगेट रो नांव आवण सूं
नीं बणै कविता-
कोटगेट री ।
किणी कवि सूं
कोटगेट आज तांई नीं बोल्यो-
लिखण सारू कविता-
कोटगेट री ।
जीसा रै लारै
बांटती बगत पातळां
टाळी ही पातळ-
कोटगेट री ।

बीकानेर रै च्यारूं दरवाजां सागै
अबै बंतळ करैला जीसा
बामण नै दियोड़ा
पोथी-पानड़ा अर पेन सूं
स्यात कविता लिखैला जीसा !
***
(8)

दादी दांई दुनिया

आयै दिन
मंदगी मांय अधरझूल
झोटा खावै है- दादी ।
ऐ झोटा
पूरा ईज समझो हणै
पण मन नीं भरै दादी रो !

दादी !
थारो जीवण सूं
क्यूं है- इत्तो लगाव ?
अबै कांई रैयो बाकी
जद कै थारा टाबर ई
उफतग्या है, नाक राखता-राखता
गळी-गवाड रै डर सूं ।

भायला, दादी दांई दुनिया ई
खावै है झोटा ।
***
(9)

मायनो चावूं म्हैं

सूरज चांद री गुड़कती दड़ियां सूं
नीं रीझूंला म्हैं
मयनो चावूं म्हैं
कै शेषनाग रै फण माथै है
का किणी बळद रै सींगां माथै
आ धरती

मायनो चावूं म्हैं
कै म्हारी जड़ां जमी मांय है
का आभै मांय किणी डोर सूं
बंध्योड़ो हूं म्हैं ।

मायनो चावूं म्हैं
कै किणी रिधरोही भटकूंला
का पंख लगा उडूंला आभै मांय
किणी बीजै री आंख सूं

मायनो चावूं म्हैं
कै किणी पुटियै काकै री टांगां माथै है
का किणी किसन री आंगळी माथै
ओ आभो
बिरखा-बादळी का इंदरधनख सूं
नीं रीझूंला म्हैं
मायनो चावूं म्हैं
***
(10)

ओळखतां थकां ई

म्हैं गफल रैयो
थे होकड़ा लगा लगा
रचता रैया
नित नूंवां रास !

म्हनै अळघो राखर सांच सूं
थां साज्या- थांरा मतलब ।

आज म्हैं
थांनै ओळखता थकां ई
थांरा होकड़ा उतारण री ठौड़
होकड़ा लगावण री सोचूं ।
***







कविता किरण री दो कवितावाँ


१.
कूण कैवे है
रीता समदर में
जाय‘र तिरां
भरया घडा में ई
पाणी भरां
कीं करणो
कीं नीं करणो
ओ ई ठा कोनी
स्म्रितियां रे
जंगळ में
रोता फिरां
अर
अपणी ई
छाया सूं डरां।
कूण कैवे
समै रे साथै
सगळा घाव
भर जावे।
बसंत रै
आतां ई
सूखा पाना
सैंग झर जावै।
कूण कैवे है ?
कूण ?
***
२.
छोरयाँ
छोरयाँ
कांई ठा क्यूं
डार जावै है
काळी रातां में
अपणी ई छाया सूं
अर काछबा ज्यूं
समेट लै
सिकोड लै अपणे अंगा नै
अपणी‘ज
खाळ रै मांय।
पकड-पकड छोडे
एक-एक स्वास
ऊलाळा में ई
थर-थर धूजै
पी जावै
मूंडे री भाप।
छोरयाँ
डरप जावै
सूना गेलां में
पगरख्यां री
चर-चर स्यूं।
जम जावै
बरफ ज्याण
अपणै ई‘ज डीळ रै
सांचा में।
हो जावै भाटा ज्यूं
मिनखां री
डील नै आर-पार भेदती
निजरां रै पडतां ईं
छोरयाँ
कांई ठा क्यूं
नमती जावै दन-दन
लदियोडी
डाळी ज्यूं
गड जावै
धरती रै मांय
नीं कीधे
अपराध रै बोध स्यूं।
छोरयाँ
अबै घणी थाकगी है
खुद अपणी ई
बधती उमर रै
बोझ स्यूं
***
-कविता किरण
फालना, पाली।


सुनील गज्जाणी री लघुकथावां

सुनील गज्जाणी

 डायरी
१३ अक्टूबर २००८ ने बो आपरी डायरी मांय अन्तम बार लिख्यो हो जिकै मांय नितूगै री आप बीती लिखतो हो।

‘‘म्हे म्हारी छोरी रै सागे बजार जावतो हौ कै....जावण दौ’’

‘‘सगळी बात कीकर लिखूं सरम सी आवै है। कांई लिखूं.....जद म्है दोनू जणा बजार स्यूं निकळता हा तो उण बगद कीं अळौदरी निजरां म्हारी सैणी छोरी रै डील ने लगोलग घूरती जावै ही।’’

उण दिन रै पछै बौ आपरी छोरी रै सगपण सारू छोरो जोवण अ‘र पैसा भेळा करण मे लागग्यो। अबै बौ डायरी मांय सगा-सम्बधियां री लिस्ट अर खर्चों बचावण सारू प्लानिंग करतो हौ।
***
ओरो
‘‘हैल्लो, कम्मू! हाँ सुण, थूं कीं दिना पछै म्हारी छोरी सारू सगपण लेर म्हारे घरां आ जाए। अब.... हाँ .... हाँ.... ओरो खाली हुयग्यो, जद ही तो म्है थनै नूंतू हूँ। हैल्लो... , म्है तेज नी बोल सकूं ....हाँ, थूं सावळ सुण बस! काँई...? म्हारी सासू अबै कीकर है? गेली डफोळ ! बा मरी है जणे ई‘ज तो ओरो खाली हुयो है, अर आगणें मांय बींरी अर्थी त्यार हुवै है।’’
***
तिरस
डोकरी आवण-जावण आळा तिरसा ने पो मायं बैठी पाणी पावती ही, आपरी आख्यॉँ आली कर्योडी। जद ही कोई उणने ईंको कारण बूझतो तो फगत वा बुस-बुसा जावती।

*******



यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ री कविता- साँच मायलो


जद-जद म्हांरो उणियारो,

उणमणै सूं किच्योईज जावै,

डाबरनैणा मांय पीडावां झळमळावै,

तद-तद म्हारा भायला

तीर ज्यूं तीखा बोळ चुभावै -

‘के भयला तन्नै,

किणी टींगरी सूं परेम हुयग्यो दीसै’

म्हैं बाने कियां बतावूं

कै म्हारी भैण मोट्यार हुयगी है,

अर म्हैं ठालो बैठ्यो हूं।

जद-जद म्है मंदर जाय’र

ईसरै सामै माथो टेकूं

तद म्हारा भायला जाणै

कै म्हैं जीवण रा सातूं सुख मांगू,

पण सांच तो ओ है कै

म्हैं मा छोटी-मोटी नौकरी मांगू,

वजै म्हारी विधवा मायड मांदी है।

जद म्हैं म्हारा मायलां दुखां सूं

आकळ-बाकळ होयनै,

झींटा खींचू,

भायला जाणे के म्हैं

गैलो हुयग्यो हूं,

पण असल में

म्हैं म्हारै मांयले

विदरोव ने,

इण मिलख खावणी व्यवस्था रो

विरोध करूं,

जिकै ने म्है चिरलाय-चिरलाय

नीं कैय सकूं।

म्हैं लाचार हूं। भायला लाचार हूं।


हरीश भादाणी री राजस्थानी कविता

आखर अलख रो ओ पैलो अंक जनकवि स्व. हरीश जी भादाणी ने अ'र आपरे सगले कृतत्व अ'र व्यक्तित्व सारु समर्पित कर'र आज राजस्थान ने घणो हरख हो रयो है. ओ पैलो प्रकाशन हरीश भादाणी जी रै ब्लॉग स्यूं साभार है पूज्य हरीश जी ने  श्रद्धा सुमन अर्पित करण सारु.

11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ। आपकी प्रथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई। आपका जीवन संघर्षमय रहा । सड़क से जेल तक कि कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव नजदीक से देखने को अवसर मिला । रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया। आपने कोलकाता में भी काफी समय गुजारा। आपकी पुत्री श्रीमती सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी है। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे । कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी प्रोढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में। राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता। ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी(महाराष्ट्र), पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से ‘राहुल’, । ‘एक उजली नजर की सुई(उदयपुर), ‘एक अकेला सूरज खेले’(उदयपुर), ‘विशिष्ठ साहित्यकार’(उदयपुर), ‘पितृकल्प’ के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है । दिनांक 2 अक्टूबर २००९ को आपके निधन के समाचार से राजस्थानी-हिन्दी साहित्य जगत को गहरा आघात शायद ही कोई इस महान व्यक्तित्व की जगह ले पाये। हम ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं एवं उनकी आत्मा को शांति प्रदान हेतु ईश्वर से प्रथना करते हैं।
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो? [‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]