सुनील गज्जाणी री लघुकथावां

सुनील गज्जाणी

 डायरी
१३ अक्टूबर २००८ ने बो आपरी डायरी मांय अन्तम बार लिख्यो हो जिकै मांय नितूगै री आप बीती लिखतो हो।

‘‘म्हे म्हारी छोरी रै सागे बजार जावतो हौ कै....जावण दौ’’

‘‘सगळी बात कीकर लिखूं सरम सी आवै है। कांई लिखूं.....जद म्है दोनू जणा बजार स्यूं निकळता हा तो उण बगद कीं अळौदरी निजरां म्हारी सैणी छोरी रै डील ने लगोलग घूरती जावै ही।’’

उण दिन रै पछै बौ आपरी छोरी रै सगपण सारू छोरो जोवण अ‘र पैसा भेळा करण मे लागग्यो। अबै बौ डायरी मांय सगा-सम्बधियां री लिस्ट अर खर्चों बचावण सारू प्लानिंग करतो हौ।
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ओरो
‘‘हैल्लो, कम्मू! हाँ सुण, थूं कीं दिना पछै म्हारी छोरी सारू सगपण लेर म्हारे घरां आ जाए। अब.... हाँ .... हाँ.... ओरो खाली हुयग्यो, जद ही तो म्है थनै नूंतू हूँ। हैल्लो... , म्है तेज नी बोल सकूं ....हाँ, थूं सावळ सुण बस! काँई...? म्हारी सासू अबै कीकर है? गेली डफोळ ! बा मरी है जणे ई‘ज तो ओरो खाली हुयो है, अर आगणें मांय बींरी अर्थी त्यार हुवै है।’’
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तिरस
डोकरी आवण-जावण आळा तिरसा ने पो मायं बैठी पाणी पावती ही, आपरी आख्यॉँ आली कर्योडी। जद ही कोई उणने ईंको कारण बूझतो तो फगत वा बुस-बुसा जावती।

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Comments

3 Responses to “सुनील गज्जाणी री लघुकथावां”

September 8, 2010 at 9:54 AM

गागर में सागर आळी कहावत इण नैनी कथावां पर लागू व्है।

खासी उंडा उतरै इणरा आखर क घर रै बडेरा सारु ऐ कथावां अलख जगावै।

March 5, 2011 at 3:57 PM
This comment has been removed by the author.
March 5, 2011 at 3:58 PM

peali kaa'ni to kaaljo chir gee