रामस्वरूप किसान री कविता- काळजै रौ सांच


काळजै रौ सांच

ऊंट मरग्यौ
ठान पर बैठ्या
टाबर रोवै
ऊंट ने

आंगणै बैठ्या
मायत रोवै
रकम नै

अेक ई चोट
दो ठोड लागी
अेक साथै

टाबरां रै काळजै
अर मायतां रै माथै।
आ बैठ बात करां

आ बैठ
बात करां
आंगणै पसरयौ
मून भार बावळीै।
बंतळ री
य़ाजम बिछावां

जुगां सूं
टाळयोडा सवाल नूंतां
जवाबा रौ पावर कूंता

सेवट होणौ पडसी
सांच रै अरू-बरू
किता क दिन
टाळस्यां उरां परां
आ बैठ
बात करां।
**
(साभार- आपणो राजस्थान)

ओम पुरोहित ‘कागद’ री कवितावां

ओम पुरोहित ‘कागद’
माटी होवण री जातरा

माटी रो
ओ गोळ घेरो
कोई मांडणो नीं
ऐनाण है डफ रो
काठ सूं
माटी होवण री जातरा रो ।
डफ हो
तो भेड भी ही
भेड ही
तो चरावणियां भी हा
चरावणियां हा तो
हाथ भी हा
हाथ हा तो
ओ क्यूं हो
मीत हा
गीत हा
प्रीत ही
जकी निभगी
माटी होवण तक ।
**

बता बेकळू

कदै’ई तपै
कदै’ई ठरै
कदै’ई उड-उड घिरै !
बता बेकळू
थारै काळजै मांय
किण बात नै लेय’र
उठा पटक है ?
क्यूं उठै
भतूळियो बण
कड़कड़ी खाय’र
आभै रा
गाभा फाड़ण
अर क्यूं पाछी आ सोवै
सागी ठिकाणै ?
***

धरती

धरती !
तूं कदै’ई करती
सिणगार
बेसुमार :
कूमटै
खैजड़ी
बोअटी ऊपर होंवता
हरिया काच्चा पत्ता
जाणै कचनार !
थारी निजरां सामीं
होयो है अनाचार
बता !
कुण राखस री बकरी
चरगी
थारो हरियल संसार ?
***

संजय आचार्य 'वरुण' री कवितावाँ















मुट्ठी भर उजियाळो

निजरां सूं कीं कीं कैवणौ
मूंडै सूं कीं
कैवण सूं बत्तो हुवै
असरदार
म्हैं सीखग्यौ.
म्हैं जाणग्यौ
के रात रै अन्धारै में
न्हायोङी धरती
जे चन्दरमा सूं मांग लेवै
मुट्ठी भर उजियाळौ
तो चन्दरमा
मूंडो फ़ेर’र खिसक जावै
अर घणी बार
बो ई चन्दरमा
दिन थकै आय धमकै
धरती री छाती पर
अणमांवतौ
उजियाळौ ले’र
***
तू आभौ

तू एक अकास हौ
मतळब आभौ
घणौ लंबौ चवडौ
अणूतौ फ़ैलाव लियोङौ
जठीनै देखां
बठीनै तू, फ़गत तू
म्हैं थनै देख-देख’र
करतौ अचूम्भौ
आज भी हुवै
घणौ इचरज
के इतरी बडी चीज नै
बणावण आळौ
आप कितरौ बडौ हुसी
कुण जाणै?



कुचरणी- ओम पुरोहित 'कागद'

[] पुलिसिया कुचरणीं []



पुलिस-१

मिनखां रा
सळ काढण आळी उस्तरी
जकी घणीं तप्यां पछै
बाळ देवै
इणीं खातर
भला मिनख
इण री तपत देख
पईसां रो छांटो देय’र
दूर सूं ई टाळ देवै !

पुलिस-२

मारणों गोधो
जकै रै आगै
भाज्यां ई
पार पडै़
खड़्यो रै’यां
मार पडै़ !

* ठाणों *

कटखावणै देवता रो थान
जकै नै धोक्यां खतरो
अर नीं धोक्यां घणों खतरो
थाणै रै गेलै सूं पग रोको
जे अकल है तो
इण नैं
लारली गळी सूं धोको !

पै’लो बिरवो- नरेन्‍द्र व्‍यास

आदरजोग ओम जी रै आसीस अ'र प्रोत्साहण स्यूं मायड़ भासा में म्हारो पैलो परयास.. 'पै'लो बिरवो' रोपण सारू हुयो है सा. कित्तो सफल है, आ तो आपरै नंबरां माथै इण रो अस्तित्व टिक्योड़ो है सा.. आगे रो रास्तो आप ई'ज दिखाया, म्हारी आई अरदास है आप सबाँ गुणीजणा स्यूं. ताकि मायड़ भासा रै सारू म्हारो भी कर्तव् पूरो करण में एक माड़ो सो परयास सफल हो सकै...

पै’लो बिरवो


कित्तो बेकळ होयो होसी
जद बरस्यो होसी
पै’लो बादळ
हब्बीड़ उपड़्यो होसी
आभै में
अर टळकी होसी
अखूट धार
मोकळा जळव्हाळा लियां
जूण खातर !

कित्ती बेकळ रे’ई होसी
मुरधरा
जद कठै ई जाय'र
उपडी़ होसी एक नदी सूं
पै’ली धार
अनै सिरज्यो होसी
पै’लो बिरवो
थार में !
********

नन्द भारद्वाज री कविता- पीव बसै परदेस




पीव बसै परदेस

एक अणचींतै हरख
अर उमाव में थूं उडीकै
मेड़ी चढ़ खुलै चौबारै
सांम्ही खुलतै मारग माथै
अटक्योड़ी रैवै अबोली दीठ
पिछांणी पगथळियां री सौरम
सरसै मन रा मरूथळ में
हेत भरियै हीयै सूं
उगेरै अमीणा गीत
अणदीठी कुरजां रै नांव
संभळावै झीणा सनेसा !
हथाळियां राची मेंहदी अर
गैरूं वरणै आभै में
चितारै अलूंणै उणियारै री ओळ
भीगी पलकां सूं
पुचकारै हालतौ पालणौ !
आंगणै अधबीच ऊभी निरखै
चिड़कलियां री रळियावणी रम्मत
माळां बावड़ता पाछा पंखेरू
छाजां सूं उडावै काळा काग
आथमतै दिन में सोधै सायब री सैनांणी !
च्यारूं कूंटां में
गरणावै गाढौ मूंन
काळजै री कोरां में
झबकै ओळूं री बीजळियां
सोपो पड़ियोड़ी बस्ती में
थूं जागै आखी रैण
पसवाड़ा फोरै धरती रै पथरणै !
धीजै री धोराऊ पाळां
ऊगता रैवै एक लीली आस रा अंकुर
बरसतां मेहुड़ां री छांट
मिळ जावै नेह रा रळकतां रेलां में !
पण नेह मांगै नीड़
जमीं चाहीजै ऊभौ रैवण नै
घर में ऊंधा पड़िया है खाली ठांव
भखारियां सूंनी बूंकीजै -
खुल्ला करनाळा,
जीवण अबखौ अर करड़ौ है भौळी नार -
किरची किरची व्हे जावै
सपनां रा घरकोल्या:
वा हंसता फूलां री सोवन क्यार
वौ अपणेस गार माटी री गीली भींतां रौ
वा मोत्यां मूंघी मुळक -
हीयै रौ ऊमावौ:
जावौ बालम -
परदेसां सिधावौ !
थूं उडीकै जीवण री इणी ढाळ
अर रफ्तां-रफ्तां
रेत में रळ जावै सगळी उम्मीदां !
जिण आस में बरतावै आखौ बरस
वा ई कूड़ी पड़ जावै सेवट सांपरतां
परदेसां री परकम्मा रौ इत्तौ मूंघौ मोल -
मिनख री कीमत कूंतीजै खुल्लै बजारां !
आ सांची है के
परदेसां कमावै थारौ पीव
अर आखी ऊमर
थूं जीवै पीव सूं परबारै !

गद्य कवितावां / नीरज दइया

कवि नीरज दइया रा दोय कविता संग्रै "साख" अर "देसूंटो" प्रकासित नै चर्चित । राजस्थानी मांय संपादक रै रूप "नेगचार" सूं ओळख मिली अर पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम अर हिंदी कथाकर निर्मल वर्मा री पोथ्या रा आप अनुवाद ई करिया । अकादमी अर दूजा मान सम्मान ई मिल्योड़ा ।आप राजस्थानी मांय पैली लघुकथावां लिखी अर संग्रै "भोर सूं आथण तांई" प्रकासित ई हुयो । पोथी "आलोचना रै आंगणै" छपण मतै । आं दिनां रैवास सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)  । ई-मेल : neerajdaiya@gmail.com

ऊंठ
            ओ ऊंठ दांईं सूतो ई रैसी कांई?” जीसा रा बोल उठतां ई उण रै कनां पड्‌या। स्यात्‌ बो खासी ताळ भळै ई सूतो रैवतो, पण अबै बो आंख्यां मसळतो उठग्यो हो। पण जागता थकां ई बो तुरत पाछो नींद में भळै जाय पूग्यो, जठै बीं नै सपनो याद आयो हो।      
            बो सपनै में देख्यो हो कै बो सचाणी ई ऊंठ बणग्यो है। पण अबखाई आ ही कै बो ऊंठ बण्यां उपरांत ई सोचै हो कै बो कांईं करै। अठी-उठी हांडता-हांडता ई उण नै कोई मारग कोनी लाध्यो, च्यारूंमेर रिंधरोही ही अर उण रै किणी सवाल रो जबाब बठै कठै लाधतो। बिंयां बो घोर अचरज में ई हो कै बो बैठो बैठायो इंयां ऊंठ किंयां बणग्यो। घर अर मा-जीसा री याद ई उण नै आई पण बो जाणै बेबस हो। उठ’र दो च्यार गडका काढ्यां ई उण नै निरांयत नीं बापरी तो आभै कानीं नाड़ ऊंची कर’र ठाह करण री कोसीस करी कै नाड़ कित्ती लांबी है। ओ भणाई रो असर हो कै बो नाड़ तुरत ही हेठै कर ली। उण नै भाई रा बोल चेतै आया कै ऊंठ री नसड़ी लांबी हुवै तो कांई बा बाढण तांई हुवै है।
            जीसा कैवै हा- “चमगूंगा, इंयां चमक्योड़ै ऊंठ दांई अठी-उठी कांईं देखै। उठ, देख कित्तो सूरज माथै आयग्यो।" उण नै चेतै आयो कै रात सूवण सूं पैली ई जीसा उण नै झिडकता थकां कैयो हो कै "लड़धा, ऊंठ जित्तो हुयग्यो। अबै कीं काम-धंधो कर्‌या कर।"  
***

चालो माजी कोटगेट
बड़ी गवाड़ बीकानेर माथै एक तांगैवाळो हो जिको हरेक चलतै नै बकारतो- चालो माजी कोटगेट। बो काल म्हारै सपनै में आयो। म्हैं बीं नै ओळख लियो कारण कै एक दिन एक रस्तै चालती लुगाई आप री चप्पल काढ़ ली- रे धबिया, म्हैं कांईं थनै माजी दिखूं? बो दिठाव ही हो जद पछै म्हैं उण तांगै वाळै नै गौर कर्‌यो कै बो हरेक चलतै नै बकारतो- चालो माजी कोटगेट।
सपनो ई क्या चीज हुवै कांईं कांईं नीं दिखाय देवै, बो म्हनै कैयो- भाई जी, बीड़ी पाओ। अर घणै सूतम री बात कै म्हैं ई ठाह नीं क्यूं खुद री चप्पल काढ़ ली अर उण नै कैयो कै- रे धबिया, म्हैं कांईं थनै बीड़ीबाज दिखूं?
बीं रै गयां पछै म्हैं सपनै मांय विचारतो रैयो कै म्हैं उण री जरा सी फरमाइस माथै इंयां किंयां कैयग्यो। पण अबै कांईं कारी लागै। सपनै में उण पछै म्हैं आसै-पासै दुकानां नै जोवतो खासी आफळ करी कै कदास कोई दुकान लाध जावै। जे दुकान लाध जावै तो म्हैं बीड़ियां रो बंडळ लेय’र दौड़तो जावूं अर उण नै पकड़ा देवूं। इत्तै मांय बो ई तांगै वाळो जाणै कठीनै सूं निकळ’र आयग्यो अर पागल कोटगेट माथै तांगो लिया ऊभो बोलै हो- चालो माजी कोटगेट।
      ***

वासु आचार्य री कविता- नीमडौ अर म्हैं



नीमडौ अर म्हैं

बी री बापडै री
लाचारी तो
कोई नी जाणै
सुणावै- आवै-जावै जकां
खारा बोल बीनै’ ई सुणावै
बो और कोई नीं
एक नीमडै रो पेड
जकौ आपरी छाया-
चैत री खुसबू-
सौ कीं लुटावै
पण बी’रै आसै-पासै
नीं ठा कीकर
ऊगगी तीखै कांटा री
बौट्यां-
फैळगी सूळां
आवे जकौ
जावै नीमडै रे कनै
लैवण नै आणन्द
अर चीं-चीं करतौ
पछौ न्हाठै
खुभता कांटा- रिसतौ खून पूंछै
दै जावै-
नीमडै ने
अकैकारा ’लोरा‘
म्हैं देखूं- घणी बार
ओ सौ दीठाव
दैऊ म्हारै- मन ने धीजौ
बो- म्हारै कांनी ताकै
म्हैं बी रै कांनी।
***
-वासु आचार्य
(साभार जागती जोत)

हरीश बी. शर्मा री कवितावां


थमपंछीड़ा

अरे
थम पंछीड़ा
ढबज्या
देख
सूरज रो ताप बाळ देवैलो।
बेळू सूं ले सीख
कै उड बठै तांई
जित्ती है थारी जाण
जित्ती है थारी पिछाण

आमआदमी
जिको नीं जाणै
मांयली बातां
गांव री बेळू ने सोनो
अर पोखरां में चांदी बतावे।
सन् सैंताळिस रै बाद हुया
सुधार गिणावै
नूंवै सूरज री अडीक राखै
अर अंधारो ढोवै।
छापै में छपी खबरां
पढ़ै अर चमकै
बो आम आदमी है।
***

हिचकी

म्हारी जिनगाणी रे रोजनामचे में
थारी ओळूं
हिचकी बण'र उभरे
अर बिसरा देवै सै कीं
म्हारो आगो-पाछो
ऊंच-नीच
हां, सैं कीं
चावूं, नीं थमे हिचकी
भलां ही हिचकतो रूं सारी उमर
अर थारै नांव री हिचकी ने
देंवतो रूं दूजा-दूजा नांव
दाब्या राखूं म्हारो रोजनामचो
जाणूं हूं
थारै अर म्हारे बिचाळै री आ कड़ी
जे टूटगी तो फेर कांई रैवेला बाद-बाकी
इण साचने सोधण बाद
म्हें हूं म्हारे दुख-सुख रो जिम्मेवार
पण बता तो सरी
थूं कियां परोटे है म्हारे नांव री हिचकी
***

सिरजण पेटे

थारै खुरदारा शबदां ने
परोटतां अर
थारै दिखायोड़ै
दरसावां पर
नाड़ हिलांवता ई'जे
म्हारा जलमदिन निकळना हा
फैरुं क्यूं दीनी
म्हने रचण री ऊरमा
सामीं मूंढ़े म्हांसू बात नीं करण्या
थारै परपूठ एक ओळभो है
कीं तो म्हारे रचण अर सिरजण पेटे ई
'कोटो' रखतौ।
***

ओळख

जमीन अबेस म्हारी ही
जद बणावण री सोची एक टापरो
निरैंत पाणै री कल्पना में
करणी सोची कीं थपपणा
अपणापै री
एक भाव री जको उजास देवै
मन पंछी ने।
पण जमीन रो टुकड़ो
कई दे'र देवतो
ब्ल्यू प्रिंट खिचिजग्या
अर म्हारी कल्पना रा सैं धणियाप
अचकचा'र खिंडग्या
खड़ी हुवण लागी भींत्या
बणग्यो घर
एक ऊंची बिल्डिंग
जके में म्हारो धणियाप इत्तो ही हो
क म्हारै कारणै इणरी योजना बणी
राजी करण ने कइ लोग मिळ परा
बचावण ने फ्रस्टेशन सूं
नांव दियो म्हनै नींव रो भाटो
म्हारै जिसा घणखरा
इण बिल्डिंग हेठे
भचीड़ा खा-खा'र एक-दूजे सूं
धणियाप जतावंता आपरो
जाणन लाग्या हां
धीरे-धीरे आपरी ओळख
हुया संचळा
थरपिजग्या आप-आपरी ठौड़
पूरीजी म्हारी आस
निरैंत पाणै री कल्पना
***

खूंट

म्हारी खूंट री परली ठौड़ रो दरसाव
तिस ने बधावै
अर म्हारै पांति रे तावड़े ने
घणौ गैरो करे।
थारी छियां
म्हारी कळबळाट बधावण सारु
कम नीं पड़े।
थनै पाणै री बधती इंच्छा
देखतां-देखतां तड़प बण जावै
जिकै में रैवे थारै नांव रो ताप, ओ ताप
तोड़ देवै है कईं दफै हदां - थारी अर म्हारी खूंट बीचली
***

चाळणी

रोजीना थारै शबदां बिंध्योड़ी चालणी
म्हारे मन में बण जावै
थूं जाणनो चावै कम अर बतावणो चावै घणौ।
म्हारे करियोड़े कारज में
थूं खोट जोवै
अर कसरां बांचै
म्हे जाणूं हूं, पण चावूं
थूं थारी सरधा सारु इयां करतो रे
चायै म्हारे काळजे में चाळनियां बधती जावै
काल थारा कांकरा अर रेतो
ई चालणी सूं ई छानणो है
***

सुपारी

सरोते रे बीच फंसी सुपारी
बोले कटक
अर दो फाड़ हुय जावै
जित्ता कटक बोलै
बित्ता अंस बणावै
लोग केवै सुपारी काटी नीं जावै
तद ताणी
मजो नीं आवै-खावण रो
आखी सुपारी तो पूजण रे काम आवै
पूजायां बाद
कुंकु-मोळी सागै पधरा दी जावै
स्वाद समझणिया सरोता राखै
बोलावे कटक
अर थूक सागै, जीभ माथै
रपटावंता रेवै सुपारी ने
सुपारी बापड़ी या सुभागी
जे जूण में आई है-लकड़ां री
अर सुभाव है-स्वाद देवणों
तो ओळभो अर शबासी कैने
***

सांवर दइया री कवितावां

सांवर दइया री कवितावां




अर अचाणचक

आभै में उडतै
पंछी नै देख
        मुळकूं
        हरखूं
        उच्छब मनावूं

……अर अचाणचक
आकळ-बाकळ हो जावूं

अटकै म्हारी आंख
आड़ लेय ऊभो
पारधी निजर आवै
म्हारी सांस
ऊपर री ऊपर
हेठै री हेठै रह जावै !
***

इक्कीसवीं सदी

साव उघाड़ी
साटणिया साथळां
काकड़ियै-सा फाटता बूकीया
          अर ए श्रीफळ
आंख्यां रातीचोळ
जाणै छक’र पी हुवै हथकढ़ी

जठै जावूं
म्हारै गळै पड़ै
आ उफणती नदी
नांव पूछूं तो एक ई उथळो-
        म्हैं इक्कीसवीं सदी !
       म्हैं इक्कीसवीं सदी !!
***

मन री नदी

आंधी
बोळी
गूंगी
छतां लखणा री लाडी
      आ मिजळी सदी

जंगळ सूं जुड़िया
लोभ रा लाडू
     काटां-बाटां-खावां
     थे-म्है-स्सै

कारखानै री सूगली नाळियां
                गिंधावतो पाणी
चिमन्यां सूं निकळतो धूंवो
अमूजतो आभो
धांसतो-खून थूकती हवा

मैला गाभा
मैलो तन
मैली आंख
मैली मन री नदी !
***

ऊंधो हुयोडो रूंख देख’र

म्हारी जड़ां
जमीन में कित्ती ऊंडी है
आ चींतणियो रूंख
         आंधी रै थपेड़ां सूं
         ऊंधो हुयग्यो जमीन माथै

कित्ताक दिन रैवैला
तण्यो म्हारो डील-रूंख ?

नितूकी बाजै
अठै अभाव-आंधी
होळै-होळै कुतरै
             जड़ां नै जीव

अबै
औ गुमान बिरथा
म्हारी जड़ां
जमीन में कित्ती ऊंडी है !
***

धोरां रो धणियाप

म्हारै च्यारूंमेर
धोरा ईं धोरा

धायोड़ां नै लखावै
        सोनै वरणा

भूखां नै
पीळीयै में पड़ियै टाबर-सा
आं धोरां रो धणियाप
म्हारी सांसां माथै

आ तो
आंरी मरजी
रोसै
का पोखै म्हनै !
***

हत्भाग

गूंगो गुड़ रा गीत गावै
बोळियो सरावै

सजी सभा में
पांगळो पग पम्पोळ बोल्यो-
                     म्हैं नाचसूं !

आंधो आगै आयो
बाड़ो बोलतो-
        थांरो कांई ठेको लियोड़ो है
        म्हनै ई देख्ण द्यो !

कळावंत !
काठी झाल थारी कलम नै
***

जायसी री पीड

म्हैं काळो
म्हैं काणो
म्हैं कोझो

थांनै हंसता देखूं तो लखावै
हाल मरियो कोनी
                शेरशाह

म्हैं माटी हो कदै ई
इण गय सूं पैली
जाणता हुवोला थे ई
रचना पड़रूप हुवै सिरजणियै रो

म्हारी कणाई
म्हारी कोजाई
उणियारो है बींरो ई !
***

छळ

लोग कैवै :
तूं जठै दांत देवै
बठै चिणा कोनी देवै
अर जठै चिणा देवै
             बठै दांत

पण म्हनै तो तैं
दांत अर चिणा दोनूं ई दिया

अबै
आ बात न्यारी है
कै आं दांतां सूं
ऐ चिणा चाबीजै कोनी !
***