ओम पुरोहित ‘कागद’ |
माटी रो
ओ गोळ घेरो
कोई मांडणो नीं
ऐनाण है डफ रो
काठ सूं
माटी होवण री जातरा रो ।
डफ हो
तो भेड भी ही
भेड ही
तो चरावणियां भी हा
चरावणियां हा तो
हाथ भी हा
हाथ हा तो
ओ क्यूं हो
मीत हा
गीत हा
प्रीत ही
जकी निभगी
माटी होवण तक ।
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बता बेकळू
कदै’ई तपै
कदै’ई ठरै
कदै’ई उड-उड घिरै !
बता बेकळू
थारै काळजै मांय
किण बात नै लेय’र
उठा पटक है ?
क्यूं उठै
भतूळियो बण
कड़कड़ी खाय’र
आभै रा
गाभा फाड़ण
अर क्यूं पाछी आ सोवै
सागी ठिकाणै ?
***
धरती
धरती !
तूं कदै’ई करती
सिणगार
बेसुमार :
कूमटै
खैजड़ी
बोअटी ऊपर होंवता
हरिया काच्चा पत्ता
जाणै कचनार !
थारी निजरां सामीं
होयो है अनाचार
बता !
कुण राखस री बकरी
चरगी
थारो हरियल संसार ?
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